मंगलवार, 5 मई 2009

स्त्री हु मै...

नदी की तरह एक धार हू ,
उठती हू ,गिरती हू ,फ़िर चलती हू
परम्पराओ का अंधानुकरण ,
नियमो ,व्रतो, मर्यादाओ में बंधी ,पर विज्ञापनों की पहली सीढ़ी हू।
सीखा नही जमीन पर चलना ,बस ....
उड़ती रही पतंग की तरह ,,
उनके इशारो पर ,
रेशमी आसमान में ,
चमकते सूरज को चुप्पी साधे,
देखती रही ,अपने ही घर के अपनों के द्वारा ,
चुपचाप लुटती रही....लुटती रही ..
....क्या फर्क पड़ता है ???
मटमैली रौशनी में ,बेबसी में
अपनी मुठिया भीच लू ....या ,
धरती को आंसुओ से सींच दू ?
क्या फर्क पड़ता है??
सब बदल गया है
पर ..पर कुछ भी नही बदला
किसी कोने में मै
हू आज भी अबला
....क्योंकि ...स्त्री हू मै ...
एक स्त्री ..सिर्फ़ एक स्त्री ...

सोमवार, 4 मई 2009

सांझ के धुए me..

सांझ के धुए में ..सब कुछ मानो.. विलीन हो रहा था ..रास्ते बहोत थे पर कौन सा रास्ता मुझे मंजिल तक ले जाएगा सोचना बहोत मुश्किल सा था .निरंतर एक प्रयास ..अनवरत एक कोशिश ..मानो जिस रास्ते की तलाश थी वो जैसे मेरी मुट्ठी में ही तो मैंने समेट कर रखा है ..क्यों नही खोल पा रही उस बंद मुट्ठी को ..या की खोलना ही नही चाहती कभी ?अनगिनत प्रश्न ?? मन में डर है की कही बंद मुट्ठी को खोल दिया तो उन सपनों का आकाश समेट पाऊँगी .उन सारे सपनों को अपनी उन्मुक्त बाहों में कैद करके अपनी राह चल पाऊँगी ?मेरी राह मानो साँझ के धुंधलके में धीरे धीरे विलीन सी हो रही ..शायद मुझे सुबह के सूरज का इंतजार करना होगा उसकी तेज रौशनी में मुझे कोई नई राह मिल जाए ...और मै अपनी मंजिल को को स्पर्श कर सकू ....