सोमवार, 4 मई 2009

सांझ के धुए me..

सांझ के धुए में ..सब कुछ मानो.. विलीन हो रहा था ..रास्ते बहोत थे पर कौन सा रास्ता मुझे मंजिल तक ले जाएगा सोचना बहोत मुश्किल सा था .निरंतर एक प्रयास ..अनवरत एक कोशिश ..मानो जिस रास्ते की तलाश थी वो जैसे मेरी मुट्ठी में ही तो मैंने समेट कर रखा है ..क्यों नही खोल पा रही उस बंद मुट्ठी को ..या की खोलना ही नही चाहती कभी ?अनगिनत प्रश्न ?? मन में डर है की कही बंद मुट्ठी को खोल दिया तो उन सपनों का आकाश समेट पाऊँगी .उन सारे सपनों को अपनी उन्मुक्त बाहों में कैद करके अपनी राह चल पाऊँगी ?मेरी राह मानो साँझ के धुंधलके में धीरे धीरे विलीन सी हो रही ..शायद मुझे सुबह के सूरज का इंतजार करना होगा उसकी तेज रौशनी में मुझे कोई नई राह मिल जाए ...और मै अपनी मंजिल को को स्पर्श कर सकू ....

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